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Bhindrawala is not dead, alive !!

भिंडरावाला मरा नहीं, ज़िंदा है !!



आज से करीब 35 वर्ष पूर्व देश के पंजाब प्रांत में कई दिनों से चली आ रही तनातनी का अंत हुआ था. इस दौरान करीब 400 से ज्यादा नागरिकों ने अंतिम सांस ली और करीब 80 से ज्यादा जवानों को शहीद का दर्जा दिया गया. लेकिन आज लगभग 3-4 दशकों बाद पवित्र स्थल अमृतसर दरबार साहिब में घटी उस घटना को कहानी और किस्से का रूप दे दिया गया है. हालाँकि इस किस्से में सबसे बड़ा और शुरूआती चैप्टर "Blue Star" को रखा गया, जबकि सही ढंग से यह अंतिम होना था.

जब अंत, प्रारम्भ में तब्दील हो गया !!

जो नजरअंदाज नहीं की जा सकती, वो 1977 का कांग्रेस की हार है. यहीं से कांग्रेस ने एक बीज बोया, जो आगे बढ़कर सत्ता का फल देने वाला था. लेकिन जैसे-जैसे वो वृक्ष बड़ा हुआ वो फलरूपी वृक्ष पीपल बन गया. जिससे फल की उम्मीद थी, उस वृक्ष की जटाएं दिन-ब-दिन बढ़ने लगी और वह चाहने लगा की उसे पूजा जाए. यही तत्कालीन प्रधानमंत्री को नागवार गुजरा. सही समय देख प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने पहले उसे आतंकवादी घोषित किया, फिर समय को आंकते हुए जंग का ऐलान कर दिया. शायद इसलिए भी कि लगातार बढ़ती "खालिस्तान" की मांग, जो जंग में तब्दील हो रही थी उसपर लगाम लगाया जा सके. लेकिन हुआ उल्टा. 6 जून को जंग का ऐलान कर सरकार ने तथाकथित आतंकवादी को मार तो गिराया लेकिन वहीं से "खालिस्तान" की लौ और मजबूत हो गयी. या यूँ कहा जाए जिसे सरकार अंत समझ रही थी वो प्रारम्भ था.

सच तो ये है, भिंडरावाला मरा ही नहीं है !!

ये बात सब जानते हैं की अमृतसर में उस जंग के बाद एक घोषित आतंकवादी का अंत हो गया था. लेकिन उसके बाद से ही खालिस्तान बनाने की उस मांग में और जान आ गयी. इसे स्वीकारने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. वह शायद इसलिए भी क्योंकि जो तवलीन सिंह, कुलदीप नैयार, हरि जयसिंह जैसे पत्रकारों ने समाज को और आने वाली पीढ़ियों को बताया उसे समझदारों और जिज्ञासुओं ने पिरो कर अपने विचार बना लिए. वहीं दूसरी तरफ गाँव में मौजूद बुजुर्गों की कहानियों में उस घटना को जिस तरह दर्शाया गया और आने वाली पीढ़ियों को परोसा गया, वह लुटियंस से निकलते खबरों के हेडलाइन्स से भले मिलते-जुलते थे लेकिन उनके तर्क अलग रहे और शुरू से ही उन्हें एक दिशा दी गयी. मानो कि सिर्फ तत्कालीन प्रधानमंत्री ही दोषी नहीं बल्कि उनका हीरो भिंडरावाले है.   
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  सरकार व पत्रकारों के एक बड़े तबके के अनुसार भिंडरावाले की मौत के बाद शव को परिवार वालों के हवाले कर दिया गया था. लेकिन वहीं खुले आसमान में तारों के नीचे सुनाए जाने वाली कहानियों के स्वर यही कहते हैं कि "भिंडरावाले का शव सरकार को कभी मिला ही नहीं, भिंडरावाले ने तो अंतिम समय में समाधि ले ली थी" !!

आप बुद्धिमान बन सकते हैं लेकिन धर्म से बड़े नहीं !!

दो-चार किताबों व पत्रकारों की रचनाओं को पढ़ आप जानकारी इकठ्ठा तो कर सकते हैं. लेकिन धर्म से जुडी हुई चीजों में कभी भी सही नहीं हो सकते. भारत में एक बड़ा तबका है जो धर्म के नाम पर कुछ भी कर गुजरने के लिए हमेशा तैयार रहता है. ऐसा नहीं है की वो अनपढ़ है बल्कि बड़े तादाद में टाई-कोट वाले भी इसमें मौजूद हैं. अगर आप उनको समझाने की कोशिश करेंगे तो वो आपको मोड़ते हुए नेहरू और गाँधी पर ले जाएंगे और अजीबो-गरीब तर्क देंगे. आखिर में आपको तर्क के सामने घुटने टेकने होंगे और बचने के लिए बहस से दूर रहना होगा. आखिरकार किसी धर्म से जो जुड़ा है.

  बड़े स्तर पर इसका फायदा राजनीतिक आकाँक्षाओं व अपेक्षाओं के लिए राजनैतिक पार्टियों द्वारा उठाया गया. फिर वो कश्मीर हो, राम मंदिर हो या खालिस्तान की मांग हों. इनको एक मोड़ पर धर्म, सम्प्रदाय, जाति से जोड़कर ऐसी जगह पर छोड़ दिया गया जहाँ से आगे बढ़ना असम्भव तो नहीं लेकिन कम जोखिम वाला और आसान भी नहीं है.

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