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पहले बिना मांगे कानून बनाया अब बिना मांगे कमेटी बना दी, क्या सरकार व सुप्रीम कोर्ट किसानों का भला चाहते हैं?

  11 जनवरी को केंद्र की मोदी सरकार द्वारा लाए गए तीनों नए कृषि कानूनों के अमल पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी। सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाने के साथ साथ एक कमेटी का गठन कर दिया है, ये   कमेटी   सरकार और किसानों के बीच जारी विवाद को समझेगी और अगले कुछ दिनों में सुप्रीम कोर्ट में अपनी रिपोर्ट सौंपेगी। इस   कमेटी में कौन लोग है   इसके बारे में हम आपको बाद में बताएंगे, पहले कुछ सवाल जो इस फैसले की मंशा पर सवाल खड़े करते हैं।    11 जनवरी को जब पहली बार सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई तो   चीफ जस्टिस अरविंद बोबड़े ने सरकार से कहा   था कि आंदोलन को लेकर आपका रवैया गलत है, अगर आप कुछ नहीं कर सकते तो हमें कुछ करना होगा। असल में यही सबसे बड़ा पेच फंस गया, 11 जनवरी की शाम को किसानों ने प्रेस रिलीज जारी करके अपना मत स्पष्ट कर दिया। किसानों ने कहा- हम सुप्रीम कोर्ट का सम्मान करते हैं कि उन्होंने किसानों की समस्या को संज्ञान लिया। लेकिन किसानों ने ये भी कहा, कि हमारी लड़ाई सरकार से है, हम किसी तरह की   मध्यस्थता नहीं चाहते , मतलब किसान सुप्रीम कोर्ट से किसी त...

18 महीने तक विदेशी बताकर डिटेंशन सेंटर में रखा, अब कहा- तुम बांग्लादेशी नहीं बल्कि भारतीय हो

  गुवाहाटी में रिक्शा चलाने वाले मोहम्मद नूर हुसैन ने कहा- सरकारी अधिकारियों ने हम पर बांग्लादेशी होने का आरोप लगाया, तर्क में कहा- तुम गैरकानूनी ढंग से बॉर्डर पार करके यहां आए हो, जबकि ऐसा नहीं है, हम यहीं पैदा हुए, हम असम के हैं, हम भारतीय हैं। ये बातें कहते हुए मोहम्मद नूर हुसैन के चेहरे पर संतोष के भाव थे, क्योंकि फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल ने 34 साल के नूर हुसैन, उनकी पत्नी सहेरा बेगम और दो बच्चों को भारतीय बताया है, 18 महीने के बाद उन्हें डिटेंशन सेंटर से बाहर किया गया है।    यह भी पढ़ें:  REET 2016 : एक ऐसी भर्ती जिसमें High Court के दो बार आदेश के बावजूद सरकार ने नहीं जारी की वेटिंग लिस्ट   मोहम्मद नूर हुसैन असम के उदालपुरी जिले के निवासी हैं, वह लॉडॉन्ग गांव में अपनी पत्नी व दो बच्चों के साथ रहते हैं, गुवाहाटी में रिक्शा चलाकर परिवार का पेट पालते हैं, कमाई का कोई और जरिया नहीं है, बच्चे छोटे हैं इसलिए पत्नी मजदूरी करने नहीं जाती। असम में भारतीय नागरिक पहचान यानी   एनआरसी   ने काफी उथल-पुथल मचाई, देशी-विदेशी की लिस्ट बनी और करीब 19 लाख लोग विदेशी ठहरा...

Democracy does not die today, the corpse has suffered a few more

लोकतंत्र आज नहीं मरी, लाश को कुछ लात और पड़े हैं   महाराष्ट्र में   देवेंद्र फडणवीस   द्वारा सीएम पद का शपथ लेने के साथ ही लोकतंत्र की हत्या के संदेश सोशल मीडिया पर तैरने लगे। असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक और न जाने क्या-क्या विशेषण इस घटना को दिए जा रहे हैं। लोकतंत्र की हत्या हुई कब? लोकतंत्र की हत्या हुई । ये ख़बर अब आम हो गई है। इसलिए इस ख़बर के अन्य पहलुओं पर भी ध्यान देना ज़रूरी हो गया है। ख़बर सुनते ही मन में आना चाहिए कि हत्या हुई तो हुई पर हुई कब? अब जब सवाल उठ ही गया तो अंदर तक गोता लगाना चाहिए। और अंदर तक गोता लगाने पर पता चलेगा कि लोकतंत्र की हत्या बहुत पहले ही हो चुकी थी। ये तो बर्फ़ के बीच रखी लोकतंत्र की लाश है जिसे देख-देख हम ख़ुश होते रहते हैं।  कैसे हुई लोकतंत्र की हत्या? जम्मू कश्मीर में भाजपा और पीडीपी, बिहर में राजद और जेडीयू, उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा - क्या ये गठबंधन ज़िंदा लोकतंत्र में स्वीकार्य होते? एक राज्य को केंद्र शासित प्रदेश में तोड़ देने पर विपक्ष की लगभग चुप्पी क्या ज़िंदा लोकतंत्र में स्वीकार्य होता। लाखों युवाओं की बेरोज़गारी, अर...