एनकाउंटर में मारी गई न्यायपालिका!
सुबह-सुबह एक एनकाउंटर हुआ। चार लोग मारे गए। वो चार लोग जिन्होंने एक पशु चिकित्सक का पहले बलात्कार किया और फिर उसे ज़िंदा जला दिया। इन लोगों की मौत अपराधों के मामले में ज्यादा कुछ बदलेगी- इसकी संभावनाएँ कम ही हैं। लोगों का एक बड़ा तबका इस एनकाउंटर को न्याय बता रहा है और उनमें खुशी की लहर है।
लेकिन लोगों का एक बड़ा तबका जो माने वो ठीक हो - ये ज़रूरी नहीं। एनकाउंटर हुआ तो चार बलात्कार आरोपियों का है लेकिन इस एनकाउंटर ने न्याय प्रक्रियाओं और न्याय व्यवस्था को और अधिक कमज़ोर किया है। बेहतर होता कि न्यायपालिका इन आरोपियों को त्वरित सज़ा देती। ऐसा करना न्यायपालिका के प्रति लोगों के सम्मान को बढ़ाता।
एनकाउंटर न्याय नहीं हो सकता
संविधान ने हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्याय देने की जिम्मेदारी न्यायपालिका नाम के संस्थान को दिया गया है। इस मामले में पुलिस ने आरोपियों को पकड़ा। वारदात के दृश्य को रिक्रिएट करने के लिए वारदात की जगह पर लेकर गई। पुलिस के अनुसार आरोपियों ने भागने की कोशिश की, जिसके कारण आरोपियों को मार दिया गया। न्यायपालिका तक आरोपी पहुँचे ही नहीं तो न्याय का सवाल ही पैदा नहीं होता। बल्कि वर्तमान व्यवस्था में मुमकिन है कि एनकाउंटर को लेकर भी न्याय की उम्मीद में जाँच शुरू हो।
लोग क्यों हैं खुश
लोगों के खुश होने की सबसे बड़ी वजह है भावनात्मक संतुष्टि। दरअसल, ये चार लोग सोशल मीडिया पर अपने कृत्यों के कारण राष्ट्रीय दरिंदे घोषित हो गए थे। ट्रायल लोगों के बीच चल चुका था, मीडिया में चल चुका था सो लोग कोर्ट ट्रायल तक का धैर्य नहीं जुटा पा रहे थे। भावनात्मक उन्माद उनके उपर सवार हो रहा था। जया बच्चन जैसी नेताएँ इस उन्माद को बढ़ावा दे रही थी। सो लोगों का ध्यान प्रक्रियाओं में थी ही नहीं। अगर वो कुछ चाहते थे तो उन आरोपियों की मौत। सो जब मौत हुई, तो लोग खुश हुए।
इसके अलावा न्यायपालिका की कछुआ चाल ने भी न्याय प्रक्रियाओं में से लोगों के विश्वास को हिलाया। निर्भया रेप के दोषी का अब तक ज़िंदा रहना, अनेकानेक मामलों में कोर्ट का अंजाम तक नहीं पहुँच पाना, आरोपियों का खुलेआम घूमना, अपराध का लगातार बढ़ते चले जाना - इन कारणों ने भी लोगों को न्याय प्रक्रियाओं पर विश्वास न करने को मजबूर किया।
न्यायप्रक्रिया धीमी, क्या करें लोग?
बेशक न्यायप्रक्रिया धीमी है। इतनी धीमी कि कई बार फैसले प्रासंगिक भी नहीं होते। इस स्थिति में लोगों द्वारा संस्थान को छोड़ कर भीड़तंत्र में यकीन करना वाजिब नहीं है। ज़रूरी ये है कि लोग वास्तविक मुद्दों को समझें। एनकाउंटर पर खुश होने की जगह धीमी न्याय प्रक्रिया के खिलाफ खड़ी हो। सरकार की उस व्यवस्था के खिलाफ खड़ी हो जिसने न्यायपालिका में ज़रूरी संख्या में कभी नियुक्ति नहीं होने दी। वकालत करने के बाद कॉलेजों से निकलकर बेरोज़गार हो जाने वाले या सामान्य सरकारी परीक्षाओं की तैयारी में लग जाने वाले युवाओं की स्थिति के खिलाफ खड़ी हो।
क्या हो सकता है असर
अगर हम व्यवस्थाओं को दरकिनार करते रहेंगे तो लोकतंत्र के खत्म होने और जंगलराज के आने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। जो जिसको मार सकता है वो उसको मारेगा। जिसकी लाठी में दम होगा वो न्याय को पारिभाषित करेगा। प्राकृतिक न्याय का कांसेप्ट खत्म हो जाएगा। जो जाति, धर्म, लिंग कमज़ोर है वो न्याय के लिए अपेक्षाकृत मजबूत लोगों पर हमेशा निर्भर रहेंगे। जो शोषित हैं, जो दबे हुए हैं - वो हमेशा रहेंगे। व्यवस्थाओं के क़त्ल का मतलब हमारा क़त्ल है। आइडिया ऑफ इंडिया का क़त्ल है।
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