15 साल की दलित किशोरी हो, 11 साल की बच्ची, 22 साल की युवती या 4 साल की बच्ची - दलितों के ख़िलाफ़ बलात्कार की घटनाएँ लगभग आम हो गईं हैं। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा के मामलों की आवृत्ति अन्य राज्यों से अधिक है।
लगातार बढ़ रही हैं दलितों और महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध की घटनाएँ
2014 से 2018, 2019 और 2020 के दरम्यान साल तो बदले हैं लेकिन दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा, दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ बलात्कार की दुखद कहानी नहीं बदली है। NCRB के आंकड़ों के मुताबिक पिछले 10 सालों में दलितों के खिलाफ अपराध के मामलों में 37 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है। लेकिन सज़ा होने के दर में केवल 2.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 2019 में दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा के 45,953 मामले दर्ज किए गए। और सज़ा दर रही मात्र 32.1 फ़ीसदी।
आम तौर पर भी महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के मामलों में साल-दर-साल इज़ाफ़ा हो रहा है। NCRB के आँकड़े बताते हैं कि 2017 में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के कुल मामले थे 3,59,849, 2019 में ये मामले बढ़कर हुए 3,78,236 और 2019 में 4,05,861।
पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध का मुख्य कारण
महिलाओं और दलितों के ख़िलाफ़ बढ़ते अपराधों की संख्या मनुवादी पितृसत्तात्मक समाज का एक दुर्भाग्यपूर्ण चेहरा है। फ़िलहाल, हाथरस में 19 साल की लड़की के साथ हुए वीभत्स गैंगरेप, और मामले में प्रशासन की संदिग्ध भूमिका ने इस चर्चा को हवा दी है। घटना के बाद 12 गाँवों के सवर्ण लोगों द्वारा आरोपियों के पक्ष में की गई पंचायत, प्रशासन द्वारा सबूत मिटाने की कोशिश, हिंदुत्ववादी युवकों द्वारा पीड़ित के घर जाकर दी गई धमकी, व्हाट्सएप पर पीड़िता के ख़िलाफ़ तैर रही मैन्यूफैक्चर्ड कहानियाँ इस घटना के जातीय स्वरूप को उजागर करता है।
मनुस्मृति की जातीय व्यवस्था की तरफ़ लोगों का बढ़ता झुकाव दलितों पर पड़ रहा है भारी
दरअसल, अब भी सवर्ण जातियों का एक बड़ा तबका दलितों को उसी तरह से रखना चाहता है जैसा मनुस्मृति में बताया गया है। कट्टर हिंदुत्ववादी राजनीति ने ख़ास विचारधारा के लोगों के मन में जाति व्यवस्था पर विश्वास क़ायम करवाया है। हिंदुत्ववादी संगठन हिंदू महासभा के महामंत्री कहते हैं कि हम संविधान का सम्मान करते हैं लेकिन मनुस्मृति भी बढ़िया है। इसमें क्या ग़लत है।
समझना ज़रूरी है कि मनुस्मृति में सामाजिक श्रेणियों और उनके कर्तव्यों का वर्णन है। इन्हीं सामाजिक श्रेणियों में शूद्रों का वर्णन है। मनुस्मृति के अनुसार शूद्र के दायित्व हैं -
- उच्च जातियों की सेवा और
- ब्राह्मणों के प्रति समर्पण
मनुस्मृति के अनुसार इसके अलावा शूद्रों के पास कोई अधिकार नहीं है।
कई दलित एक्टिविस्ट्स का मानना है कि संविधान के द्वारा दिया गया बराबरी का अधिकार, मनुवादी पचा नहीं पाए। और यही कारण है कि मनुस्मृति के अनुसार शूद्रों की जो औक़ात है वो शूद्रों को याद दिलाया जाता है। और पितृसत्तात्मक समाज में औक़ात याद दिलाने के लिए बलात्कार से अधिक उपयुक्त और क्या होगा!
हिंदू राष्ट्र में दलितों के लिए ग़ुलामी एकमात्र विकल्प
इस मामले में बात करते हुए दलित नेता और गुजरात के वडगाम से विधायक जिग्नेश मेवाणी ने कहा कि राजस्थान और उत्तर प्रदेश दोनों ही राज्यों में सामाजिक रूप से सामंती और सवर्णवादी सोच सशक्त है, जिसके कारण इन राज्यों में दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा की अधिक घटनाएँ देखने को मिली हैं। उन्होंने ये भी कहा कि उत्तर प्रदेश में इस तरह की सोच को सरकार और प्रशासन का समर्थन प्राप्त है, जिसके कारण वहाँ स्थिति और भी अधिक ख़तरनाक है।
कहा जा सकता है, कि मोेटे तौर पर मुसलमानों के लिए ख़तरनाक समझे जाने वाला हिंदू राष्ट्र का कांसेप्ट, दरअसल दलितों और आदिवासियों के लिए बराबर ख़तरनाक है। हिंदू राष्ट्र मनुस्मृति की नींव पर ही खड़ा हो सकता है और अगर ऐसा हुआ तो तथाकथित पिछड़ी जातियाँ एक बार फिर गुलामों की तरह ज़िंदगी जीने को मजबूर हो जाएंगी।
source: https://www.molitics.in/article/713/ten-Dalits-women-are-raped-every-day-crime-against-dalit-statistics
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