
गुवाहाटी में रिक्शा चलाने वाले मोहम्मद नूर हुसैन ने कहा- सरकारी अधिकारियों ने हम पर बांग्लादेशी होने का आरोप लगाया, तर्क में कहा- तुम गैरकानूनी ढंग से बॉर्डर पार करके यहां आए हो, जबकि ऐसा नहीं है, हम यहीं पैदा हुए, हम असम के हैं, हम भारतीय हैं। ये बातें कहते हुए मोहम्मद नूर हुसैन के चेहरे पर संतोष के भाव थे, क्योंकि फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल ने 34 साल के नूर हुसैन, उनकी पत्नी सहेरा बेगम और दो बच्चों को भारतीय बताया है, 18 महीने के बाद उन्हें डिटेंशन सेंटर से बाहर किया गया है।
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मोहम्मद नूर हुसैन असम के उदालपुरी जिले के निवासी हैं, वह लॉडॉन्ग गांव में अपनी पत्नी व दो बच्चों के साथ रहते हैं, गुवाहाटी में रिक्शा चलाकर परिवार का पेट पालते हैं, कमाई का कोई और जरिया नहीं है, बच्चे छोटे हैं इसलिए पत्नी मजदूरी करने नहीं जाती। असम में भारतीय नागरिक पहचान यानी एनआरसी ने काफी उथल-पुथल मचाई, देशी-विदेशी की लिस्ट बनी और करीब 19 लाख लोग विदेशी ठहरा दिए गए, इसमें हुसैन का भी परिवार शामिल था।
हुसैन के दादा-दादी का नाम 1965 की मतदाता सूची में था, पत्नी सहेरा बेगम के पिता का नाम 1951 की एनआरसी में भी शामिल था, परिवार के नाम जो जमीन थी उसके कागज के अनुसार 1958-59 में वह असम में ही रहते थे ऐसे में ये तय था कि उन्हें भारतीय घोषित किया जाए क्योंकि असम में नागरिक पहचान की कट-ऑफ तारीख 24 मार्च 1971 तक की गई थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, गुवाहाटी पुलिस को हुसैन के इन कागजों पर भरोसा नहीं हुआ और 2017 में उनकी फिर से जांच शुरु कर दी गई। हुसैन न तो इतना पढ़ा था कि उसे कानून या कागज की समझ होती और न ही उसके पास इतने पैसे थे कि वह एक वकील करके अपना पक्ष रख पाता।
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लोगों से बात करने के बाद उसने किसी तरह से एक वकील से बात की और 4000 रुपए दिए, लेकिन ट्रिब्यूनल में बिना वकील ही पेशी हुई। वकील और हुसैन में पता नहीं क्या बात हुई वकील ने 28 अगस्त 2018 को केस छोड़ दिया। इसलिए कोर्ट में दोबारा पक्ष ही नहीं रखा गया, लोगों ने सलाह दी कि गुवाहाटी छोड़कर भाग जाओ हुसैन। लेकिन हुसैन ने ऐसा नहीं किया, उसे लगा कि उसके साथ न्याय होगा। नतीजा ये रहा कि ट्रिब्यूनल ने दोनो को विदेशी घोषित कर दिया, जून 2019 में उन्हें गिरफ्तार करके गोआलपाड़ा डिटेंशन सेंटर भेज दिया गया।
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लोगों के बीच जब इसबात की चर्चा शुरु हुई तो गुजरात स्थित मानवाधिकार वकील अमन वदूद ने इस केस गुवाहाटी हाईकोर्ट की चौखट तक पहुंचाया, कोर्ट ने जांच में पाया कि मोहम्मद नूर व उसके परिवार को अवैध तरीके से डिटेंशन सेंटर में रखा गया है, वह बांग्लादेशी नहीं बल्कि भारतीय ही हैं। इस फैसले के बाद वदूद की पहली प्रतिक्रिया ये थी कि तमाम लोगों को विदेशी इसलिए भी ठहरा दिया जा रहा है क्योंकि उनके पास केस लड़ने या वकील को फीस देने का पैसा नहीं है। जिसके कारण उनका पक्ष कोर्ट में रखा ही नहीं जा पाता। ये प्रतिक्रिया वास्तव में हमें सोचने पर मजबूर करती है। अगर हुसैन का केस गुवाहाटी हाईकोर्ट में न जाता तो क्या वह भारतीय साबित हो पाते?
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