
एक अमर तस्वीर है 1993 की। सुडान में खींची गई थी। तस्वीर में ज़मीन पर एक बहुत कमज़ोर लड़का बैठा हुआ है सिर झुकाए। उससे कुछ ही दूरी पर एक गिद्ध है। एकटक उस देखता हुआ। तस्वीर पुलित्ज़र अवॉर्ड से नवाज़ी गई। खींचने वाले थे केविन कार्टर। 1994 में केविन ने आत्महत्या कर ली। कारण था - दुख औऱ वो अहसास जो लाशों, गरीबी और भूखे बच्चों को देखकर उन्हें हुआ था। जिंदगी की निराशाएँ, खुशियों पर हावी हो गई थीं।
अमर दुखद तस्वीर और भारत
केविन कार्टर की उस तस्वीर की कहानी आज हमारे देश में हकीकत बनी घूम रही है। उस तस्वीर में जो गरीब लड़का था वैसे ही निराश, हताश और हालात से हारे हुए गरीब लोग आज सड़कों पर हैं; बांद्रा रेलवे स्टेशन पर, सूरत में, शहरों की गलियों में सब्जी बेचते हुए, दिल्ली में यमुना किनारे ज़मीन पर लेटे हुए।
केविन कार्टर की उस तस्वीर की कहानी आज हमारे देश में हकीकत बनी घूम रही है। उस तस्वीर में जो गरीब लड़का था वैसे ही निराश, हताश और हालात से हारे हुए गरीब लोग आज सड़कों पर हैं; बांद्रा रेलवे स्टेशन पर, सूरत में, शहरों की गलियों में सब्जी बेचते हुए, दिल्ली में यमुना किनारे ज़मीन पर लेटे हुए।
भारत की इस तस्वीर में गिद्ध कौन
बस थोड़ा सा अंतर है। अंतर ये कि देश की इस हकीकत वाली तस्वीर में केवल एक गिद्ध नहीं बल्कि दो तरह के गिद्ध हैं।
- कोरोना संकट के कारण लगाया गया लॉकडाउन।
- कैमरे के पीछे इस भीड़ को कवर करने के बहाने इनके खिलाफ नैरेटिव सेट करने वाले गोदी पत्रकार।
पहले वाला गिद्ध हमारी मजबूरी है। दूसरे तरह का गिद्ध हमारी बदकिस्मीती। इन गिद्धों को गरीबी का दंश झेलते मज़दूर अपना प्रोपेगैण्डा चलाने का एक ज़रिया मात्र नज़र आते हैं। वो साम-दाम-दंड-भेद के ज़रिए इस भीड़ को बदनाम करने में लग जाते है। या तो भीड़ को मुसलमान घोषित कर ने की कोशिश करता है। इसमें सफल होते ही बाकी मकसद पूरे। और अगर ऐसा करने में कामयाब नहीं हुए नहीं तो भीड़ को कोरोना कैरियर के रूप में पेंट करने लगते हैं।
गोदी मीडिया और इस्लामोफोबिया
जिस दिन लॉकडाउन 2 की घोषणा हुई, उसी दिन बांद्रा स्टेशन पर सैंकड़ों की तादाद में लोग पहुँचे थे। निराश भी थे और एक अफ़वाह के शिकार भी। घर जाना चाहते थे - किसी भी तरह। लेकिन लॉकडाउन की घोषणा के साथ ही ट्रेनें कैंसिल हो गईं और इन गरीबों का सपना टूट गया। पर देश के नामी संपादकों/ पत्रकारों/ एंकरों को गरीबों का टूटा हुआ सपना नहीं दिखा। उन्हें एक दिन पहले तक रेलवे मे चल रही ट्रेन चलाने की संभावनाओं की चर्चा भी नहीं दिखी - उन्हें दिखी बांद्रा रेलवे स्टेशन के पास खड़ी मस्जिद। आप की अदालत वाले पत्रकार इस बार सचमुच के जज बन गए। और लगभग घोषणा कर दी कि भीड़ न तो निराश है न हताश। बस मस्जिद द्वारा मैनेज्ड है।
जिस दिन लॉकडाउन 2 की घोषणा हुई, उसी दिन बांद्रा स्टेशन पर सैंकड़ों की तादाद में लोग पहुँचे थे। निराश भी थे और एक अफ़वाह के शिकार भी। घर जाना चाहते थे - किसी भी तरह। लेकिन लॉकडाउन की घोषणा के साथ ही ट्रेनें कैंसिल हो गईं और इन गरीबों का सपना टूट गया। पर देश के नामी संपादकों/ पत्रकारों/ एंकरों को गरीबों का टूटा हुआ सपना नहीं दिखा। उन्हें एक दिन पहले तक रेलवे मे चल रही ट्रेन चलाने की संभावनाओं की चर्चा भी नहीं दिखी - उन्हें दिखी बांद्रा रेलवे स्टेशन के पास खड़ी मस्जिद। आप की अदालत वाले पत्रकार इस बार सचमुच के जज बन गए। और लगभग घोषणा कर दी कि भीड़ न तो निराश है न हताश। बस मस्जिद द्वारा मैनेज्ड है।
एक बड़े निजी न्यूज़ चैनल ने बार-बार ये नैरेटिव सेट करने की कोशिश की कि ये भीड़ मस्जिद के द्वारा मैनेज की गई है। सोशल मीडिया पर इस बात की लहर चल पड़ी। तो कैमरे के पीछे खड़े जिन गिद्धों का जिक्र मैं कर रहा था, उन्होंने गरीबों के मुद्दों को नोंच लिया और इंसानों को मुसलमान बना दिया।
गोदी मीडिया के कैमरों के पीछे मौजूद इन गिद्धों के इस्लामोफोबिया ने देश के ताने-बाने को खत्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हालात ये हैं कि कोई जावेद सब्जी बेचने जाता है तो उसे अपना नाम संजय बताना पड़ता है। मुसलमान नाम वाले सब्जी बेचने वाले को लोग अपना दुश्मान समझते हैं और उसे मारते-पीटते हैं। कोरोना संकट में कोरोना वायरस से बड़ा दुश्मन मुसलमानों को बनाने की कोशिश की गई है इन गिद्धों के ज़रिए।
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लॉकडाउन का ये समय इन गिद्धों को एक अवसर के रूप में दिखा। अवसर नफरत फैलाने का। प्रोपैगेण्डा ठूँसने का। और भक्ति में आकंठ से भी थोड़ा ज्यादा डूब जाने का। केविन कार्टर के मन में जिन अहसासों ने जन्म लिया, उसकी अपेक्षा इनसे नहीं की जा सकती। इसलिए ज़रूरी है कि हम खुद ही इन गिद्धों को पहचानें। गरीबों, मज़दूरों के साथ कम से कम आत्मिक संवेदना रखें। ताकि साप्रदायिकता का वायरस हमें खत्म न कर दे।
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