
पूरा विश्व नाज़ुक वक्त से गुज़र रहा है। लेकिन भारतीय मीडिया का एक बड़ा तबका अभ भी सांप्रदायिक उन्माद फैलाने में लगा हुआ है। फ़र्ज़ी वीडियो और झूठी ख़बरें प्रकाशित कर एक खास तरह का नैरेटिव सेट किया जाता है। इस नैरेटिव से समाज का ताना-बाना बुरी तरह से खराब हो रहा है। आखिर क्यों मीडिया का एक बड़ा तबका समाज के खिलाफ खलनायक की तरह एक्ट कर रहै है? - इस मुद्दे पर हमने बातचीत की सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र पत्रकार प्रशांत कनौजिया से।
वीडियो देखें - https://youtu.be/bVKEV2379Y0
बातचीत के अंश -
प्रश्न - एक ऐसे समय में जब देश महामारी से लड़ रहा है, आखिर क्यों गोदी मीडिया सांप्रदायिक नफ़रत फैला रही है?
उत्तर - जब चौकीदार सो जाता है तब वह सारी जिम्मेदारी कुत्तों को दे जाता है। मीडिया का एक बड़ा तबका कुत्तों की भूमिका में आ चुका है। जब चौकीदार सो रहा है, चोर लोग आकर देश को लूट रहे हैं, बेईमान लोग देश को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं तो मीडिया को काम दिया गया है कि लोगों को निरंतर गुमराह करके मूलभूत सुविधाओं पर सवाल पूछना शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था पर सवाल पूछना - यह सब नहीं होना चाहिए। मीडिया को सरकार से यह कॉन्ट्रैक्ट मिला हुआ है कि वह किसी भी तरह से आमजन को गुमराह करे। इसी गुमराही में जो सरकार स्थापित हुई है, देश में वह नफरत की बिसात पर स्थापित हुई है।
प्रश्न - मतलब पत्रकारिता संस्थान में जो लोग काम कर रहे हैं वह इंस्ट्रक्टेड हैं?
उत्तर - बिल्कुल-बिल्कुल इंस्ट्रक्टेड हैं। पहले अरुण जेटली जी हैंडल करते थे ये सब कुछ। अब कोई और हैंडल कर रहा है। यह मुझे अभी नहीं पता कि कौन अभी गोदी मीडिया को हैंडल कर रहा है?
प्रश्न - पत्रकारिता संस्थान में काम करने का आपका अपना अनुभव रहा है आप सोशल मीडिया पर भी काफी एक्टिव रहते हैं, जिसकी वजह से आपको जेल भी जाना पड़ा है? सरकार की तरफ से जिस तरह के दबाव की बात आप कर रहे हैं, उस दबाव के बीच पत्रकारों के जमीर और उनकी पेशेवर कमिटमेंट का क्या होता है?
उत्तर - देखें, क्या है ना की गणेश शंकर विद्यार्थी का एक जमाना था पर अब एक अलग जमाना हमें देखने को मिल रहा है। इमरजेंसी के दौरान जब पूरी तरीके से अधिकार आपके ले लिए गए थे, उस समय भी बहुत सारे पत्रकार थे जो लड़ने का काम कर रहे थे, लिखने का काम कर रहे थे, अखबार छापने का काम कर रहे थे। लेकिन आज तो अप्रत्यक्ष रूप से इमरजेंसी है। यह तो साफ-साफ नहीं कहा गया है कि अखबार नहीं छपेंगे। न ही प्रिंटिंग प्रेस की लाइट काट दी गई है। समस्या यह है की मीडिया का इतना व्यापारीकरण हो गया है कि हर पत्रकार को पैकेज में बांध रखा गया है। 25 लाख, 50 लाख, 80 लाख रुपयों का पैकेज। इसके कारण आपकी लाइफ स्टाइल उस दर्ज़े की हो जाती है कि आप साल का ₹80 लाख कमा रहे हैं। जाहिर सी बात है अगर आप ईमानदारी से पत्रकारिता करेंगे तो कोई आपको 60-70 हज़ार रुपये प्रति महीना से ज्यादा नहीं देगा। इस लाइफस्टाइल से मजबूर हैं पत्रकार। उनको एक आदत डाल दी गई है कि आपको यह करना है।
आजकल पत्रकारिता के अंदर आपको पत्रकार नहीं चाहिए। आप एनएसडी के किसी पास आउट को लाकर भी एंकर बना सकते हैं। एंकर और पत्रकार में बहुत अंतर होता है। जैसे स्क्रिप्टिंग होती है, फिल्म बनती है, मुझे लगता है अब न्यूज़ चैनल में भी वैसे ही काम होता है। स्क्रिप्ट बनती है, BOD मीटिंग में तय होता है कि हमें रिलायंस से एडवर्टाइजमेंट मिल रहा है तो हम उनके खिलाफ नेगेटिव नहीं रहेंगे; अदानी पावर से एडवर्टाइजमेंट मिल रहा है तो हम उसके खिलाफ नहीं जाएंगे। कुल मिलाकर मीडिया मालिक केंद्रित हो गया है पहले वह एडिटर केंद्रित हुआ करती थी। पहले संपादक सारे निर्णय लेता था। अब मालिक निर्णय लेते हैं। इसीलिए यह परिणाम देखने को मिलते हैं।
मालिक का अपना व्यवसायिक हित होता है। और उस इंटरेस्ट को प्रोटेक्ट करने के लिए वह सरकार के खिलाफ बहुत ज्यादा आलोचनात्मक नहीं हो सकता है। उसे सरकार की जरूरत पड़ती है। उसे जमीन सस्ते दाम पर चाहिए। टैक्स की चोरी से वह बचा रहे। ED या इनकम टैक्स उस पर हाथ ना डाले। हर बिजनेसमैन टैक्स की चोरी करता है यह जगजाहिर है। जाहिर सी बात है कि सरकार की गोद में बैठने से वह सुरक्षित महसूस करता है। विदेशों में एक ट्रेंड है बड़े बड़े बिजनेसमैन भी सरकार से सवाल करते हैं, उसकी आलोचना भी करते हैं लेकिन हमारे देश में जो भी बिजनेसमैन है वह जिसकी भी सत्ता हो उसकी गोद में बैठा रहता है। आजकल तमाम मीडिया संस्थान किसी ना किसी बिजनेस वेंचर का पार्ट है।
2008 तक मीडिया का बड़ा सम्मान था लेकिन उसके बाद 2012-13 से इसकी छवि में गिरावट आई है। आज आप अपने आप को पत्रकार कहिए तो समाज के अंदर लोग आपको दलाल समझते हैं। पहले सम्मान की नजर से देखते थे कि पत्रकार हैं।
प्रश्न - आज स्थिति हास्यास्पद हो चली है। अगर आप कहें कि अब पत्रकार हैं तो आपसे सवाल होता है कि आप कांग्रेसी पत्रकार हैं कि भाजपाई? वामपंथी पत्रकार हैं या दक्षिणपंथी? इस स्थिति को आप कैसे देखते हैं?
उत्तर - पत्रकार दो ही तरीके का होता है - या तो सत्ता का गुलाम हो सकता है या सत्ता से सवाल पूछने वाला हो सकता है। अगर किसी को किसी चीज से फायदा हो रहा है तो जाहिर है वह पावर की तरफ रहेगा। विपक्ष की तरफ क्यों रहेगा गाली खाने के लिए? यह बहुत पहले से चला आ रहा है आप बीजेपी से सवाल पूछे तो कहते हैं आप कांग्रेसी हैं कांग्रेसियों से सवाल पूछे तो कहते हैं भाजपाई हैं आम आदमी पार्टी से सवाल पूछे तो कहते हैं भाजपाई और कांग्रेसी दोनों हैं।
.....जारी है.
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