
आज हम आपको फ्लैक्सिबल लोकतंत्र बताएंगे। बताएंगे कि कैसे हैसियत देखते ही लोकतंत्र खतरे में आ जाता है। लोकतंत्र कमजोर कैसे होता है और मजबूत कैसे होते हैं इसे समझने के लिए रिपब्लिक टीवी के एडिटर इन चीफ अर्नब गोस्वामी का मामला समझना पड़ेगा। साथ ही उनके द्वारा पिछले तीन महीने से सुशांत सुसाइड केस में आरोपी बनाई गई रिया चक्रवर्ती का मामला समझना होगा। जो कभी स्टूडियो में दहाड़ मार रहे थे वह आज जैसे ही शिकंजे में आए तुरंत बेबस लाचार बन गए।
फ्लैक्सिबल लोकतंत्र क्या है जानते हैं आप? यूपी के ललितपुर में ‘सत्ता सरकार’ अखबार के पत्रकार विनय तिवारी को भाजपा नेता के बेटो ने इसलिए पीटकर हाथ-पैर तोड़ दिए क्योंकि विनय ने उनके खिलाफ खबर लिख दी थी। इस घटना के बाद लोकतंत्र एकदम खतरे में नहीं आया। दूसरी खबर भाजपा शासित त्रिपुरा से है। यहां एक अखबार है ‘प्रतिवादी कलम’ इस अखबार ने कृषि विभाग में 150 करोड़ रुपए के घोटाले के संबंध में खबर छाप दी। सत्ताधारियों को ये बर्दाश्त नहीं हुआ। 7 नवंबर की सुबह इस अखबार को ले जा रही गाड़ी को रोका गया और 6000 प्रतियों में आग लगा दी गई। जो नहीं जले उसे फाड़कर फेंक दिया गया। इस घटना के बाद भी लोकतंत्र पर एकदम खतरा नहीं आया।
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फ्लैक्सिबल लोकतंत्र लंबे वक्त से चल रहा है। पिछले दिनो हाथरस गैंगरेप मामले में आपने देखा। दो दिनों तक गांव में मीडिया को घुसने नहीं दिया गया। जिन्होंने मीडिया पावर का इस्तेमाल किया उसके खिलाफ योगी सरकार ने अपनी पावर का इस्तेमाल करते हुए एफआईआर दर्ज कर दिया। बलरामपुर में भी यही हुआ। जिन मीडिया वालों ने खबर छाप दी उन्हें नोटिस थमा दी गई। गुजरात में एक अखबार ने सूत्रों के हवाले से खबर छाप दी तो भाजपा सरकार इतनी नाराज हो गई कि उसके खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर दिया। इन सारी घटनाओं में कहीं भी लोकतंत्र को हिचकी नहीं आई।
अच्छा अब आप पूछेंगे कि लोकतंत्र खतरे में आता कब है? आपका सवाल जायज भी है? दरअसल लोकतंत्र खतरे में तब आता है जब सत्ता पक्ष के किसी बड़े नेता पर कोई संकट आ जाए। उसकी पार्टी पर संकट आ जाए। उसके एजेंडे का खुलासा हो जाए। उसके किसी अघोषित प्रवक्ता पर संकट आ जाए। जैसे अर्नब गोस्वामी पर आया है। अर्नब पर संकट आया तो उनके समर्थकों का अलाप देखा जा सकता है। महाराष्ट्र में लोकतंत्र की हत्या की जा रही है, हिन्दुओं पर आत्याचार किया जा रहा है। मतलब ऐसी तमाम बाते लिखी बोली जा रही है जो किसी और पत्रकार के लिए नहीं निकलती।
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जिस अर्नब को लेकर लोकतंत्र पर खतरा जैसी बात कही जा रही है, उसने तो कभी लोकतंत्र की मजबूती के लिए काम ही नहीं किया। मेरी बात पर यकीन न हो तो पुराना रिकॉर्ड खंगाल लीजिए, किसी भी पत्रकार पर हुए हमले पर रिपब्लिक टीवी व अर्नब ने चुप्पी ही साधी है। अगर मामला भाजपाशासित राज्य का रहा तो वहां दौड़कर सरकार के पक्ष में खड़े हो गए। सामाजिक कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज नाम याद होगा आपको? 4 जुलाई 2018 को अर्नब गोस्वामी ने एक कार्यक्रम प्रसारित किया और बताया कि सुधा ने किसी माओवादी को चिट्ठी लिखकर कहा कि देश में कश्मीर जैसी परिस्थिति पैदा करनी होगी। सुधा पर पैसे लेने का भी आरोप लगाया। सुधा ने इसको लेकर सफाई मांगी लेकिन अर्नब कोई सफाई न दे सके। बड़ी बात ये कि यहां भी लोकतंत्र खतरे में नहीं आया।
आज अर्नब पुलिस की गाड़ी में रो रहे हैं। खुद को पीटे जाने की बात कह रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगा रहे हैं। ये देखकर बुरा लगता है। लेकिन इतना ही बुरा तब भी लग रहा था जब रिया चक्रवर्ती को दोषी साबित करने के लिए अर्नब स्टूडियो में बैठकर 20 लोगों से कह रहे थे ‘हमें चाहिए 302’ बुरा तब भी लग रहा था जब इनके रिपोर्टर रिया चक्रवर्ती के घर से निकलने पर टूट पड़ते थे। समय का पहिया है देखिए कितना जल्दी पलट गया। अर्नब जितने बेबस आज दिख रहे हैं रिया उतनी बेबस कभी नहीं दिखी थी। बाकी लोकतंत्र का क्या है, वह तो हर दिन खतरे में आता रहता है। लोगों ने अपने हिसाब से इसे सेट कर लिया है। इसका कब प्रयोग करना है उन्हें बखूबी पता है।
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