
क्या भारत बिना शिक्षा के विश्व गुरु बन सकता है? अगर ऐसा नहीं तो फिर उच्च शिक्षा को हर दिन महंगा क्यों किया जा रहा है? ये जानते हुए कि आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण बड़ी संख्या में छात्र उच्च शिक्षा हासिल करने से पहले ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। क्या इससे ये मान लिया जाए कि सरकार मान चुकी है कि हम वाट्सऐप यूनिवर्सिटी के जरिए ही लोगों को शिक्षित कर देंगे। ताजा उदाहरण नीट-पीजी की परीक्षा का है।
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नीट का एंट्रेंस टेस्ट नेशनल बोर्ड ऑफ एग्जामिनेशन यानी एनबीई करवाता है। पिछले साल जिन छात्रों ने इसका टेस्ट दिया उन्हें फार्म के लिए 3750 रुपए देने पड़े थे। इस बार जो छात्र इस टेस्ट में बैठना चाहते हैं उन्हें उसी परीक्षा के लिए 4250 रुपए देने पड़ेंगे। सिर्फ यही नहीं बल्कि इसबार जीएसटी लगा दिया गया है। इस टेस्ट में शामिल होने वाले छात्रों को जीएसटी भी चुकाना होगा। यानी समान्य और पिछड़े वर्ग के छात्र 5,015 रुपए एससी-एसटी के छात्र 3,835 रुपए जमा करने के बाद इस परीक्षा में बैठ पाएंगे।
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ये पहला मौका है जब किसी एंट्रेंस टेस्ट पर जीएसटी लगाया गया है। इसलिए ऐतिहासिक कहें तो कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। एम्स के पीजी एंट्रेंस टेस्ट की फीस 2000 है। इसी तरह से कैट की फीस 2000 व गेट की फीस 1500 रुपए है। अब सवाल उठता है कि एक जैसी परीक्षा के लिए एक संस्थान जीएसटी नहीं ले रहा है तो दूसरा ऐसा क्यों कर रहा है? क्या जीएसटी लगाने का फैसला सरकार अपने स्तर पर नहीं बल्कि संस्थान अपने स्तर पर ले रहा है? अगर ऐसा ही रहा तो एनबीई की देखा देखी दूसरे संस्थान भी जीएसटी वसूलने लगे तो कोई अचरज नहीं होना चाहिए।
ध्यान रहे जीएसटी कानूून के मुताबिक शिक्षण संस्थान की तरफ से छात्रों को दी जाने वाली सेवाएं जीएसटी से बाहर हैं। लेकिन शिक्षण संस्थान को दी जाने वाली सेवाओं पर जीएसटी लगती है। ऐसे में सवाल उठता है कि कानून का दुरुपयोग क्यों हो रहा है। एमडी और एमएस की डिग्री के बराबर ही पोस्ट ग्रैजुएट प्रोग्राम डिप्लोमेट ऑफ नेशनल बोर्ड यानी डीएनबी है। इसकी फीस भी एनबीई ही तय करता है।
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इसबार इसपर भी जीएसटी लगा दी गई। 2019 में डीएनबी छात्रों ने सलाना फीस के तौर पर 80 हजार रुपए भरा लेकिन इस बार यही फीस 1 लाख 25 हजार हो गई। एक साल के भीतर ही 45 हजार का इजाफा कर दिया गया। इस फीस में 20 हजार रुपए एकोमोडेशन के भी है। एनबीई के ने कहा जिन अस्पतालों में हॉस्टल नहीं है वहां एकोमोडेशन चार्ज लौटा दिया जाएगा। लेकिन सवाल ये है कि उसपर जो 3600 रुपए जीएसटी वसूला गया उसे नहीं वापस नहीं देने की बात कही गई। छात्र इसके खिलाफ मांग उठाते भी हैं तो उनकी कोई सुनवाई नहीं होती।
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फीसों की अधाधुंध बढ़ोत्तरी के बीच हमें ठहरकर नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस जिसे शॉर्ट फॉर्म में एनएसओ कहते हैं उसके आंकड़ो को देखना चाहिए। इसके सर्वे के मुताबिक 2017-18 में 1 से लेकर 8वीं तक ग्रास एनरोलमेंट रेशियो 99.2 फीसदी थी। ग्रास एनरोलमेंट रेशियो का मतलब उस आयु वर्ग के सभी बच्चों में से कितने स्कूल में एनरोल है। जैसे जैसे ऊंची कक्षा में एनरोलमेंट रेशियो चेक किया गया ये संख्या कम होती चली गई। जिन छात्रों ने पढ़ाई छोड़ी उसमें 61 फीसदी ऐसे थे जिन्होंने कहा- आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने के कारण उन्होंने आगे की पढ़ाई न करने का फैसला किया है।
ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन के अनुसार 2017 में हायर एजुकेशन में ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो 25.8 फीसदी था। 2018 में इसमें मामूली बढ़ोत्तरी हुई और ये आंकड़ा 26.3 पर पहुंचा। जुलाई 2020 में मोदी सरकार ने नेशनल एजुकेशन पॉलिसी को मंजूरी दी इसमें कहा गया कि 2035 तक ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो 50 फीसदी तक ले जाया जाएगा। इस वादे के बीच एक बड़ा सवाल घूमकर फिर से आ जाता है कि जब आर्थिक तंगी के कारण करोड़ों छात्र उच्च शिक्षा में दाखिला लेने से पहले ही पढ़ाई छोड़ रहे हैं तो फिर 50 फीसदी के आंकड़े तक कैसे पहुंच पाएंगे। तमाम टैक्स क्या कम थे जो एंट्रेंस टेस्ट पर भी जीएसटी वसूला जा रहा है।
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