
उत्तर प्रदेश की राजनीति कभी भी एकतरफा नहीं चली। जब भी किसी पार्टी ने चुनाव जीता अगली बार वह सत्ता पाने के लिए संघर्ष करती नजर आई। लेकिन वर्तमान स्थिति पुराने इतिहास से अलग नजर आती है। भाजपा ने पिछला विधानसभा चुनाव प्रचंड बहुमत से जीता और आने वाले चुनाव में भी वह अभी तक सारी पार्टियों से आगे नजर आती है। इसकी सबसे बड़ी वजह कुछ और नहीं बल्कि विपक्ष की सुस्ती है। 15 जनवरी को मायावती 65 साल की हो गई। इसलिए ऐसा माना जा रहा कि 2022 यूपी विधानसभा उनके जीवन का आखिरी चुनाव होगा। सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर तीन दशक से राजनीति में सक्रिय 4 बार की मुख्यमंत्री मायावती ने अपना विकल्प क्यों तैयार नहीं किया?
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कांशीराम जी ने 1981 में एक संगठन बनाया, जिसका नाम रखा DS4, इसका नारा उन्होंने दिया 'ब्राह्मण, ठाकुर बनिया छोड़, बाकी सब हैं DS4'. यही DS4 अगले तीन साल बाद यानी 1984 में बहुजन समाज पार्टी में बदल गया। 1989 में बसपा ने यूपी विधानसभा चुनाव लड़ा और 13 सीट जीतने में सफल रही। दलितों के उत्थान के लिए बनी इस पार्टी ने किसी भी समान्य सीट पर किसी दलित को प्रत्याशी नहीं बनाया था, इसके बावजूद उन्हें दलितों के वोट खूब मिले। मायावती ने विधानसभा के बजाय लोकसभा चुनाव के जरिए राजनीति में प्रवेेश किया, 1989 में वह पहली बार सांसद बनी और 1995 में देश की पहली अनुसूचित जाति की मुख्यमंत्री बनी।
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उस वक्त की सियासत अस्थिर थी, दो साल बाद ही सरकार गिर गई लेकिन 21 मार्च 1997 को मायावती दूसरी बार प्रदेश की सीएम बनी। 3 मार्च 2002 को मायावती तीसरी बार मुख्यमंत्री बनी लेकिन इसबार वह 5 महीने बाद ही सरकार से बाहर हो गई। हालांकि तब तक बसपा की कमान वह खुद सम्भाल चुकी थी। मुलायम सिंह यादव की सरकार के खिलाफ अकेले ही मोर्चा खोले रखा। हर मुद्दे पर बेबाकी से बात रखी, यही कारण रहा कि 2007 में वह चौथी और आखिरी बार पूर्ण बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बनने में सफल रही। पांच साल राज किया। 2012 में वह उस जीत को बरकरार नहीं रख सकी और हार गई। इस तरह से बसपा का स्वर्णिम युग खत्म हो गया।
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करीब एक दशक से सत्ता से दूर मायावती के अंदर अब सत्ता हासिल करने की ललक नहीं दिखाई देती। जो आक्रमकता उनके भीतर पहले दिखती थी वह धीरे धीरे गायब होती चली गई। यही कारण रहा कि उनके खेमे के सबसे भरोसेमंद साथी स्वामी प्रसाद मौर्या, नसुमुद्दीन सिद्दीकी पार्टी छोड़कर दूसरे खेमें में चले गए। कहा जाता है कि इन दोनो ही नेताओं ने मायावती को रिप्लेस करने की कोशिश की इसलिए इन्हें बाहर कर दिया गया। मायावती को अपने खिलाफ उठती आवाज पसंद नहीं है, वह 'एकला चलो' की नीति पर भरोसा करती हैं, यही कारण है कि इतने सालों बाद भी जब बसपा में नंबर दो खोजा जाता है तो कोई नजर नहीं आता।
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2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती के साथ मंच पर उनका भतीजा आकाश दिखाई देता था, कहा जा रहा था कि मायावती का उत्तराधिकारी यही बनेगा लेकिन चुनाव के बाद आकाश एकदम गायब हो गए। ऐसे में ये विकल्प भी चर्चा शुरु होने से पहले खत्म हो गया। भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद रावण इस समय दलितों के बड़े नेता बनकर उभरे हैं। वह मायावती व बसपा से कई बार नजदीकियां बढ़ाने की कोशिश की लेकिन मायावती ने उन्हें एकदम भाव नहीं दिया। एकबार तो बिना नाम लिए मंच से चंद्रशेखर पर निशाना साधा और उन्हें भाजपा का आदमी बना दिया। हालांकि चंद्रशेखर ने इसपर किसी तरह की आक्रमक प्रतिक्रिया नहीं दी। वह आज भी मायावती को बहन और सामाजिक न्याय की देवी मानते हैं।
मायावती के अंदर जो आक्रमकता थी वह धीरे धीरे खत्म होती गई। इस समय देश में बड़ा किसान आंदोलन चल रहा है, बसपा की राजनीति में किसान-मजदूर प्रमुख हैं लेकिन मायावती मुखरता से विरोध करती नजर नहीं आई। ऐसा भी कहा जाता है कि भ्रष्टाचार के तमाम मामलों ने उन्हें कड़े फैसले या फिर भाजपा का विरोध करने से रोक दिया है। पिछले दिनों हाथरस में दलित बच्ची के साथ जघन्य अपराध हुआ था, सभी पार्टियों के दिग्गज नेता पहुंचे लेकिन मायावती नहीं गई। यहां तक की बसपा की कोई टीम भी वहां नहीं पहुंची।
फिलहाल मायावती इस समय बसपा का आखिरी और एकमात्र स्तंभ हैं, कोई दूसरा तैयार होता नजर नहीं आता। भाजपा ने बसपा के परम्परागत वोटो में सेंधमारी की है। बसपा ने उसे रोकने की कोशिश भी नहीं की, एक दशक से सत्ता से दूर पार्टी ने वोट बैंक को मेनटेन रखने के लिए किसी भी तरह का नया प्रयोग नहीं किया। दूूसरे दल जहां सोशल मीडिया के जरिए खुद को जनता से जोड़े रखा वही बसपा इससे दूर रही। 65 साल की हो चुकी मायावती शुरु से लेकर आखिरी तक पार्टी की सर्वेसर्वा रही। 2022 चुनाव में वह अकेले दावेदारी करती हैं या फिर किसी नए दल के साथ सत्ता बनाती हैं ये देखना दिलचस्प होगा लेकिन इतना तो तय है कि इस चुनाव में हारने के बाद मायावती की राजनीति खत्म हो जाएगी।
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