
हिंसा केवल लाठी भांजना, गोली चलाना नहीं होती। अपने अधिकारों का ग़लत प्रयोग करके दूसरों के अधिकारों का हनन भी हिंसा है। संस्थाओं के ज़रिए संविधान सम्मत संघर्ष की ग़लत छवि पेश करना भी हिंसा है। अपने ही देश के नागरिकों को कभी खालिस्तानी, कभी पाकिस्तानी, कभी गद्दार बता देना और आम लोगों के बीच इस राय को फैलाने की कोशिश भी हिंसा है।
लगभग 5 महीनों (2 महीनों से दिल्ली की सीमाओं में) से चल रहे आंदोलन की मांगों को लेकर अहंकारपूर्ण मौन भी हिंसा है। इन हिंसाओं पर तो कोई बात कर है नहीं रहा। चलिए उस हिंसा की बात करते हैं, जिसकी सब कर रहे हैं। पुलिस को धकियाया गया। बैरिकेड्स तोड़े गए। तलवारें लहराईं गईं। लाल क़िले पर जबरन कोई झंडा फहराया गया। ये सब हिंसा है और जो इसे हिंसा नहीं मानता वो ग़लत है। अब ये समझिए कि जब इतनी सारी हिंसा हुई, तो अगला कदम क्या होना चाहिए। पहचान करना कि हिंसा किसने की और क्यों की? जिनकी बात कोई नहीं कर रहा, वो हिंसा सरकार ने की और इसलिए की ताकि चन्द पूंजीपतियों को फ़ायदा पहुंचे। कानून पास करने का समय, तरीक़ा और बाद में आंदोलन के प्रति भाव ये मानने पर मजबूर करते हैं।
जिनकी सब बात कर रहे हैं, उसमें हिंसा किसने की बिल्कुल स्पष्ट नहीं है। फिर भी दो संभावनाएं हैं। या आंदोलनकारी किसानों ने की या फिर उन लोगों/संस्थाओं ने जो आंदोलन के नेतृत्व के हिसाब से आंदोलन का हिस्सा नहीं थे।
पहली संभावना पर बात करते हैं। मान लेते हैं कि आंदोलनकारी किसानों ने हिंसा की। एक बात याद रखिए कि सभी रास्तों पर हिंसा नहीं हुई। मोटे तौर पर ITO और पीरागढ़ी पर ये देखने को मिला। कारण क्या था? पुलिस ने तय रास्तों पर भी प्रवेश नहीं करने दिया। उनको भी रोके रखा। जिस कारण लाखों की संख्या में मौजूद आंदोलनकारी या तो बैरिकेड तोड़ने पर मजबूर हुए या तय रास्ते से इतर रास्ता चुनने पर। किसान नेता राकेश टिकैत ने भी ये बात कही और मौके पर मौजूद पत्रकारों ने भी देखा।
अब बात करते हैं दूसरी संभावना पर। किसान संयुक्त मोर्चा के योगेंद्र यादव के अनुसार पहचान करने के बाद वही लोग हिंसा में शामिल पाए जाएंगे जिनके बारे में पहले से जानकारी थी। ये लोग या तो कभी आंदोलन में शामिल थे है नहीं या बाहर कर दिए गए थे। पुलिस प्रशासन के पास इसकी सूचना थी। इनमें से एक थी किसान मजदूर संघर्ष समिति जिसने हमेशा आंदोलन में शामिल अन्य संगठनों से अलग रहे। दूसरे थे दीप सिद्धू, जो भाजपा नेता सनी देओल के छोटे भाई की तरह हैं। लाल क़िले पर जो निशान साहिब का झंडा फहराया गया उसके हीरो ये दीप सिद्धू ही थे। प्रधानमंत्री मोदी के साथ भी इनकी तस्वीर है।
जिम्मेदारी किसकी बनती है?
नैतिक जिम्मेदारी आंदोलन का आह्वान करने वालों की बनती है। उन्होंने ये जिम्मेदारी ली भी और हिंसा के लिए माफी भी मांगी। व्यावहारिक जिम्मेदारी तो लॉ एंड ऑर्डर देखने वालों की है। कैसे कोई लाल किले पर तिरंगा फहरा गया? क्यों पूर्व सूचना के बावजूद किसान मजदूर संघर्ष समिति पर नज़र नहीं रखी गई? क्यों तय रास्ते भी अवरुद्ध किए गए?
ये वो सवाल हैं जिनका जवाब गृह मंत्री से अपेक्षित है। ये सवाल पूछे जाने चाहिएं। लेकिन नहीं पूछे जा रहे। क्योंकि लोगों को हिंसा से कोई दुख नहीं है। हिंसा से दुख होता तो गौरक्षा के नाम पर हुई बर्बरताओं के ख़िलाफ़ खड़े होते। रोज़ाना होती बलात्कार की घटनाओं और उसके बाद प्रशासनिक गुंडई के खिलाफ आवाज बुलंद करते। कड़कड़ाती ठंड में किसानों पर हुए वाटर कैनन के हमले के विरोध में इनका ज़मीर जागता।
लेकिन राहत साब के शब्दों में-
"ये लोग पांव नहीं, ज़ेहन से अपाहिज हैं
उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है"
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