
एक ईमानदार पत्रकार की जिंदगी चुनौतियों से भरी होती है। उसकी पहली और बड़ी चुनौती है कि वह सच्चाई के साथ खबर को जनता तक पहुंचा सके। इसके लिए उसे बहुत मशक्तत नहीं करनी पड़ती क्योंकि जो दिख रहा उसे उसी तरह से पेश कर देना आसान है, कठित तो ये है कि खबर को घुमाकर, काट-छांटकर जनता के सामने इस उद्देश्य के साथ पेश करना कि वह गुमराह हो जाए। किसान आंदोलन में कुछ ऐसा ही हो रहा है। एक बड़ी संख्या काट-छांट के साथ खबर पेश कर रही है तो मुट्ठीभर लोगों की संख्या मुट्ठी बांधकर जो जैसा दिख रहा उसे वैसा पेश कर दे रही है।
पत्रकार मनदीप पुनिया की गिरफ्तारी को देखिए। एक फ्रिलांस पत्रकार जो अपने शौक के लिए रिपोर्टिंग करता है। दो महीने से किसान आंदोलन को कवर करने के लिए सिंघु बॉर्डर पर मौजूद है, 29 जनवरी को करीब 60 लोगों की भीड़ हाथ में डंडे और पत्थर लेकर आती है और किसानों पर हमला करने लगती है। पुलिस उन्हें ऐसा करने से रोकने की कोशिश ही नहीं करती बल्कि उन्हें एक तरह से बैकअप दिया जा रहा था। अन्य मीडिया संस्थानों ने दिखाया कि आंदोलनकारियों के खिलाफ स्थानीय लोग गुस्से में है वह इनका विरोध कर रहे हैं। लेकिन कहानी तो कुछ और निकली।
मनदीप फेसबुक पर लाइव आए, उन्होंने पत्थरबाजों की पोल खोलते हुए पूरे प्रूफ के साथ बताया कि ये स्थानीय नहीं बल्कि भाजपा समर्थक लोग हैं उन्होंने कुछ उत्पादियों की फोटो दिखाई जिसमें वह भाजपा के तमाम बड़े नेताओं के साथ मौजूद थे। पार्टी के लिए वोट मांग रहे थे, केजरीवाल सरकार का विरोध कर रहे थे। ऐसी ही तमाम खुलासे मनदीप ने फेसबुक लाइक के जरिए किया। उन्होंने दिल्ली पुलिस की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए कहा, जब पत्थर चलाए जा रहे थे तब पुलिस उन्हें रोकने के बजाय उकसाने का काम कर रही थी। यही बात पुलिस को बुरी लगी और उसने सिंघु बॉर्डर से ही मनदीप को गिरफ्तार कर लिया।
पुलिस ने मंदीप के खिलाफ IPC की धारा 186, 336 और 353 के तहत मामला दर्ज किया गया है। मतलब ये कि मनदीप ने प्रशासन के कार्य में बाधा पहुंचाई और उनसे मारपीट किया। ये कैसी बात है? ये तो सीधे तौर पर कानून का दुरुपयोग है। क्या पुलिस के साथ अभद्रता पत्रकार ही करते है? क्या पुलिस नहीं करती? कभी घटना स्थल पर इंटरनेट बंद कर दिया तो कभी सीमाओं को सील कर दिया, उस पार जाने की बात कहो तो पुलिसकर्मी बोलते हैं कि बड़े साहब से बात करो, बड़े साहब का फोन उठने से रहा। क्या काम सिर्फ पुलिस का ही होता है? पत्रकार जब घटना स्थल पर नहीं पहुंचेगा तो रिपोर्ट कैसे करेगा?अगर वह जबरदस्ती करते हुए घुस गया तो उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज कर दिया जाएगा।
पत्रकार सरकार का सबसे सॉफ्ट टारगेट बन गया है, आपको याद होगा कि यूपी के चौरीचौरा से पद यात्रा पर निकले 10 सत्याग्रहियों को गाजीपुर के पास 11 फरवरी 2020 को गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तार करने के बाद इन्हें जेल भेज दिया गया। जमकर किरकिरी हुई लेकिन सरकार नहीं पिघली, सत्याग्रहियों में आगरा की पत्रकार प्रदीपिका सारस्वत भी थी उन्होंने तो जेल के भीतर की कुव्यवस्थाओं को लेकर ही रिपोर्ट बना दी। इसपर कुछ लोगों ने मजाकिया लहजे में कहा था पत्रकारों से भिड़ना सरकार की बड़ी गलती है ये जहां भी जाएंगे सरकार की कमियों को उजागर कर देंगे।
यूपी के मिर्जापुर में एक स्कूल में रोटी नमक दिया जा रहा था, पत्रकार ने रिपोर्ट की तो उसके खिलाफ मामला दर्ज कर लिया गया। कितनी अजीब बात है न। पत्रकार सरकार की दलाली करे तो ठीक, इनकी तारीफ में प्रॉपगेंडा फैलाए तो ठीक, इनके विरोधियों को देशद्रोही बताए तो ठीक लेकिन जैसे ही इनकी खराब व्यवस्था या नीतियों के खिलाफ बोला उसको दबाने की कोशिश शुरु हो जाती है। लोकतांत्रिक देश में ऐसी घटनाएं सामने आती हैं तो सरकार के खिलाफ लोगों का गुस्सा बढ़ता है। मंदीप के मामले में भी यही हो रहा है।
मंदीप के मामले में पत्रकार समूह एकजुट है। दिल्ली पुलिस मुख्यालय के सामने बड़ी संख्या में पत्रकार धरना प्रदर्शन कर रहे हैं, मार्च निकाल रहे हैं। उम्मीद है कि गृह मंत्री अमित शाह की पुलिस इस बात को समझेगी। आंदोलन को ईमानदारी के साथ कवर कर रहे पत्रकारों के साथ मंदीप जैसा व्यवहार नहीं करेगी।
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