
2013-14 में देश के भीतर यूपीए की सरकार थी। हर दिन सुबह अखबार खोलिए किसी नए भ्रष्टाचार का खुलासा हुआ रहता था। जनता के भीतर इन भ्रष्टाचारों को लेकर आक्रोश भर गया। उस आक्रोश का फायदा सीधे तौर पर उस वक्त की विपक्षी पार्टी भाजपा को मिला। भाजपा चुनावी तैयारियों में जुटी, तमाम नारे गढ़े गए। एक सबसे मशहूर नारा था 'देश नहीं बिकने दूंगा'। नरेंद्र मोदी ने देश के हर हिस्सों में रैली की और ये नारा दिया।
जनता को भरोसा हो गया कि नरेंद्र मोदी इस देश के नए कर्णधार हैं और उनके हाथ में देश की कमान देने से देश सुरक्षित रहेगा। तरक्की के पथ पर तेजी से अग्रसर होगा। लेकिन आज सात साल बीत जाने के बाद पीछे मुड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि उस वक्त जो भी बोला गया वह सिवाय चुनावी नारे के कुछ नहीं था। क्योंकि सत्ता में आते ही सरकार ने सरकारी कंपनियों को तेजी से निजी हाथों में देना शुरु कर दिया।
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सरकारी कंपनियों के निजी हाथों में जाते ही सबसे अधिक असर SC-ST व OBC आरक्षण पर होगा। क्योंकि इसमें किसी तरह का कोई संदेह नहीं कि प्राइवेट कंपनियां आरक्षण के आधार पर भर्ती नहीं करेंगी। इस समय अन्य पिछड़ा वर्ग, अनूसूचित जाति व अनूसूचित जनजाति के युवाओं को सरकारी नौकरियों में 49.5 फीसदी आरक्षण मिलता है। उदाहरण के लिए आप देश की सबसे बड़ी सरकारी तेल कंपनी BPCL को ले लीजिए। जिसमें सरकार की करीब 53 फीसदी हिस्सेदारी है। भारी मुनाफे के बावजूद सरकार इसे बेचने की तैयारी में है। 1 जनवरी 2019 तक इस कंपनी में 11894 कर्मचारी कार्यरत थे। इसमें 2042 ओबीसी, 1921 एससी व 743 एसटी कर्मचारी थे। बीपीसीएल में जो भर्तियां हुई थी उसमें 95 फीसदी भर्तियां आरक्षण के तय मानकों पर ही हुई थी। लेकिन निजीकरण होते ही इन आरक्षित पदो को भी खुली भर्तियों के जरिए ही भरा जाएगा। यानी आरक्षण जैसी चीज बीपीसीएल में ख्वाब हो जाएगी।
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पब्लिक इंटरप्राइजेज ने 2019 में एक सर्वे किया। इस सर्वे के मुताबिक सरकारी कंपनियों में इस समय कर्मचारियों की संख्या 15 लाख है। इसमें 10 लाख 40 हजार स्थायी कर्मचारी हैं। इन नौकरियों को आरक्षण के जरिए ही भरा गया है। प्राइवेट हाथों में जाते ही नौकरियों में आरक्षण की कोई गारंटी नहीं रह जाएगी। कई सारे लोग निजीकरण की खबरों को सुनकर इसलिए भी खुश हो रहे हैं कि इससे आरक्षण समाप्त हो जाएगा। लेकिन उन्हें ये पता ही नहीं कि यहां सिर्फ आरक्षण नहीं बल्कि नौकरियां की समाप्त हो रही हैं। ऐसे में नुकसान तो आपका भी हुआ। आखिर दूसरों के नुकसान पर कब तक खुश होते रहेंगे।
तमाम सियासी विशेषज्ञ बताते हैं कि कंपनियों का निजीकरण आरक्षण को खत्म करने के लिए ही किया जा रहा है। उनकी बातों को हम खारिज नहीं कर सकते हैं। क्योंकि भाजपा के दिमाग में भारत सरकार का फायदा करवाने का उद्देश्य होता तो वह बीपीसीएल को क्यों बेचते। ये तो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी जैसा है। अगस्त से दिसंबर की तिमाही में बीपीसीएल ने 27 सौ करोड़ रुपए से अधिक मुनाफा कमाया। हमें केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर का वह बयान भी नहीं भूलना चाहिए जिसमें वह कहते हैं कि सरकार फायदा या नुकसान देखकर कंपनियों को निजी हाथों में नहीं सौपती बल्कि जो प्राथमिकता के क्षेत्र में नहीं आते उन्हें ही निजी हाथों में सौंपा जाता है। अजब है क्या सरकार की प्राथमिकता में पेट्रोलियम पदार्थ नहीं आते हैं।
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आरक्षण के मसले को लेकर मुखर रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल भाजपा की आरक्षण विरोधी नितियों का लगातार विरोध करते रहे हैं। उनका कहना है कि निजीकरण के जरिए पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग यानी पीएसयू में आरक्षण खत्म करने की तैयारी चल रही है। आरक्षण से बचने के लिए ही सरकार इसमें भर्ती नहीं निकाल रही बल्कि कॉन्ट्रैक्ट कर्मियों से काम करवा रही है। मोदी सरकार द्वारा प्रशासनिक सुधार के लिए लैटरल एंट्री का प्रावधान किया गया है। अलग अलग विभागों में बड़े पदों पर बाबुओं की पैराशूट एंट्री में आरक्षण जैसी जरूरी चीज को बाहर रखा गया है। इसमें भी अपने चहेतो को सीधे नियुक्ति दी जाएगी, नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी संभव है। एक तरह से लैटरल एंट्री ब्यूरोक्रेसी में निजीकरण की एक कोशिश नजर आती है।
आरक्षण पर प्रहार और सरकारी कंपनियों को बेचने पर भाजपा को हमेशा से जोर रहा है। 2001 से 2004 के बीच अटल बिहारी वाजपेई की सरकार ने 14 बड़ी सरकारी कंपनियों को पूरी तरहह से प्राइवेट करने की कोशिश की। इंडियन एक्सप्रेस में क्रिस्टोफर जैफरलॉट ने एक लेख लिया, जिसमें उन्होंने बताया कि 2003 में केंद्र सरकार के एससी कर्मचारी 5.40 लाख थे 2012 में ये संख्या 16 फीसदी घटकर 4.55 लाख हो गई। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि किस तरह से सरकारी कंपनियों को निजी हाथों में सौपकर आरक्षण पर हमला किया गया।
देश में अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी की कुल जनसंख्या 41 फीसदी है। 1992 में आरक्षण लागू होने से पहले सरकारी नौकरियों में इनकी संख्या काफी कम थी। लेकिन आरक्षण इनके लिए एक वरदान बनकर आया। 2004 तक केंद्र की सरकारी नौकरियों में १६ फीसदी कर्मचारी ओबीसी वर्ग के हो गए, 2014 आते आते इनकी संख्या बढ़कर 28.5 फीसदी हो गई। नौकरी लगने व पैसा मिलने के बाद इनके इनके जीवन में बदलाव आया। लेकिन प्राइवेटाइजेशन के बाद इनकी स्थिति खराब होना तय है। ये बात मैं हवा में नहीं बल्कि सबूत के साथ बोल रहा हूं।
सन 2000 से 2003 के बीच भाजपा सरकार ने मारुति सुजुकी इंडिया लिमिटेड, हिन्दुस्तान जिंक लिमिटेड, बाल्को, पारादीप फॉस्फेट्स लिमिटेड, एचटीएल लिमिटेड, इंडियन टूरिज्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड को भी पूरी तरह से बेचा जा चुका है। आपको जानकर हैरानी होगी किक 2003 में 32.69 लाख सरकारी नौकरी थी जो 2019 आते-आते 15.14 लाख हो गई। मतलब 16 साल के भीतर साढ़े 17 लाख नौकरियां कम हो गई। ऐसे वक्त में जब नौकरियां अधिक बढ़ाने की जरूरत थी तब कम की जा रही है।
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2014 में मोदी सरकार सत्ता में आई, तब से अब तक सरकार ने 121 कंपनियों को आंशिक तौर पर या फिर पूरी तरह से निजी हाथों में सौंप दिया है। यही कारण रहा कि देश में बेरोजगारी 45 साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई। मोदी सरकार ने इससे निपटने के लिए कुछ नहीं किया बल्कि आत्मनिर्भर भारत नाम का नया सिगूफा लोगों के बीच फेंक दिया। जब नौकरियां ही नहीं रहेंगी तो आत्मनिर्भर बनना लोगों की मजबूरी ही हो जाएगी।
लगातार प्राइवेट होती कंपनियों के बीच इसमें भी आरक्षण की बात होती रही है, आरक्षण समर्थक कहते रहे हैं कि कंपनियों के सिलेक्शन बोर्ड में दलित, आदिवासी, ओबीसी, अल्पसंख्यक व महिला की बराबरी सुनिश्चित की जाना चाहिए लेकिन अभी तक इस मांग को अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका है। क्योंकि प्राइवेट कंपनियों को अपने फायदों से प्यार है। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की समाजिक भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
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source link: https://www.molitics.in/article/784/privatization-of-government-companies-affect-reservation-lateral-entry
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