
किसानों के बाद अब युवाओं ने ठान लिया है कि राज्यों और अपनी-अपनी भर्ती परीक्षाओं की सीमाओं को तोड़कर एकीकृत आंदोलन करेंगे और बेतहाशा बढ़ी बेरोज़गारी पर सरकार को घेरेंगे। बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ काम कर रहे युवा हल्ला बोल ने अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से पोस्ट करते हुए सूचना दी है कि 24 मार्च को इलाहाबाद में युवाओं की महापंचायत होगी। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे और बेरोज़गारी का दंश झेल रहे युवा इस पंचायत में शिरकत करेंगे।
समस्या किसी एक भर्ती परीक्षा या आयोग में नहीं, बल्कि पूरी व्यवस्था में
युवा हल्ला बोल के संयोजक अनुपम ने बातचीत में हमें बताया, “युवा धीरे-धीरे समझ रहे हैं कि समस्या किसी एक भर्ती परीक्षा या किसी एक आयोग से जुड़ा हुआ नहीं है। समस्या पूरी व्यवस्था में है, जिसके ज़रिए नौकरियाँ लगातार कम हो रही हैं।” युवाओं को इस व्यवस्था ने कमज़ोर किया है और आश्रित बनाकर छोड़ दिया है।
क्यों नहीं बेरोज़गारी का मुद्दा सरकार को डरा पाती है?
गौरतलब है कि आए दिन कर्मचारी चयन आयोग, उत्तर प्रदेश अधीनस्थ सेवा चयन आयोग , बिहार शिक्षक भर्ती, मप्र शिक्षक भर्ती आदि से संबंधित हैशटैग ट्विटर पर दिखते हैं। सड़कों पर भी प्रदनर्श होते रहते हैं। एसएससी-जीडी 2018 के उम्मीदवार तो पिछले एक महीने से अधिक समय से दिल्ली की सड़कों की ख़ाक छान रहे हैं। उत्तर प्रदेश में यूपीएसएसएससी के तहत निकली भर्तियों में नियुक्ति न मिलने के कारण अभ्यर्थी सड़कों पर हैं। मध्य प्रदेश और बिहार में शिक्षक भर्ती का मामला अधर में लटका हुआ है और हज़ारों छात्र-छात्राएं आए दिन आंदोलन करते हैं। लेकिन बदलता कुछ नहीं है। अनुपम ने बातचीत में बताया, “मुख्य समस्या यही है कि बेरोज़गार युवा भी अब तक अपनी-अपनी भर्तियों की लड़ाई लड़ रहे हैं। जिस कारण रोज़गार की बातें चुनावी वादों और घोषणा पत्रों में तो आ गई लेकिन ज़मीन पर नहीं आ सकी।”
मोदी राज में लगातार घटी है नौकरियाँ
आँकड़े बताते हैं कि मोदी राज में बेरोज़गारी तो चरम पर पहुँची ही है, सरकारी नौकरियों के अवसर भी लगातार घटे हैं। उदाहरण के तौर पर - बैंकिंग क्षेत्र में नियुक्तियाँ वृहत तौर पर IBPS करती है। 2016-17 के दौरान IBPS ने अधिकारी के पद पर 8822 रिक्चतियाँ निकाली थीं जबकि 2020-21 में केवल 1417 नौकरियाँ निकली हैं। क्लेरिकल पदों पर 2016-17 में IBPS 19243 रिक्तियाँ निकालीं थीं,
2020-21 में महज 1557 रिक्तियाँ निकलीं हैं।
कर्मचारी चयन आयोग देश में सरकारी नौकरियों के लिए प्रतिष्ठित है। आयोग अलग-अलग स्तर पर परीक्षाएँ आयोजित करके अधिकारी, क्लर्क, पुलिस सेवा, सशस्त्र बल, अनुवादक आदि पदों पर नौकरियाँ दिलवाता है। आंकड़ों के हिसाब से मोदी शासन में कर्मचारी चयन आयोग की रिक्तियों की संख्या भी कम हुई है। 2014 में SSC-CGL की कुल 15549 रिक्तियाँ निकलीं थीं जबकि 2020 में रिक्तियों की संख्या घटकर 7035 रह गई है।
UPSSSC की बात करें तो जब से योगी आदित्यनाथ ने शासन संभाला है, UPSSSC के तहत किसी को कोई नियुक्ति नहीं मिली है। ग्राम विकास अधिकारी, गन्ना पर्यवेक्षक, कनिष्ठ अभियंता, युवा कल्याण अधिकारी आदि अनेक पदों पर नियुक्ति अटकी हुई है। 2016 से लेकर अब तक UPSSC ने 24 परीक्षाएँ आयोजित कीं, जिसमें से 22 परीक्षाएँ लंबित हैं।
बिहार, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में ख़ासतौर पर शिक्षक भर्ती के सपने देख रहे युवा निराशा के अलावा कुछ और नहीं पा रहे हैं। भर्तियों के लिए आयोजित प्रदर्शन सरकारों पर न के बराबर असर डालती हैं। इसका कारण यही है कि सरकार भी समझती है कि युवाओं का संघर्ष सीमा में जकड़ा हुआ है। ये सीमा हैं अपनी नौकरी की इच्छा। लड़ाई नौकरी के लिए नहीं बल्कि अपनी नौकरी के लिए हो रही है।
लेकिन शायद अब युवा भी समझ गए हैं कि समस्या किसी एक आयोग, या किसी एक भर्ती परीक्षा में नहीं है। समस्या उस नीति तंत्र में है जो बेरोज़गारी को बढ़ावा दे रही है। और इसी कारण अब युवाओं ने एकीकृत संघर्ष का फ़ैसला लिया है। सफलता या असफलता भविष्य की गर्भ में छिपा है लेकिन एक बात तय है कि युवा पंचायत उस संघर्ष के रास्ते का एक बड़ा पड़ाव बनेगी, जिसके माध्यम से युवा सशक्तिकरण का सपना साकार होगा।
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